Sunday, July 5, 2015

अनमना है गगन और धरा मौन है

 अनमना है गगन और धरा मौन है
किंचित है विचलित मन समीर का
तमतमा गया मुख सूर्य का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का

ऋषियों सम वृक्ष जो  काट रहे है 
भविष्य अपना शापों से पाट २हे हैं
मूको की आहों से आहत हैं वन
नर्क हो रहा है नागरी जीवन
गूंज रहा निविड़ में दर्द नीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का

कोसती है कोख अपने पाप का प्रसव
संवेदनाएं सोईं क्यों , कलुष गया जग
देखते हैँ  सब अपराध यह जघन्य
शौर्यहीन हतबल हैं  मौन हुए अन्य
विदीर्ण हुआ आज पुनः ह्रदय चीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का

भीरुओं की भीड़ हुआ संगठन समाज
क्यों शेरों के वंश पे है सियारों का राज
करुणा न जगा पाई नानक की माटी
रहगई अशक्य गुरुतेग की परिपाटी
टूटा न धैर्य क्यों अधीर धीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का

शीर्ष को लालायित हैं पतित और अधम 
उज्जवला के मुख पर कालिख का क्रम
रोष भरे मेघों में क्रोधित तड़ित
रुदन कर रही है राष्द्र की नियति
हो गया है कज्जल चरित्र क्षीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का

"©"  M Jgdis
अनमना है गगन और धरा मौन है
किंचित है विचलित मन समीर का
तमतमा गया मुख सूर्य का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का

कोसती है कोख अपने पाप का प्रसव
संवेदनाएं सोईं क्यों , कलुष गया जग
देखते रहे सब    अपराध वह जघन्य
क्यों शौर्यहीन हतबल हो मौन हुए अन्य
विदीर्ण हुआ आज पुनः ह्रदय चीर का
       
खुल गया है कोई स्कंध पीर का

 भीरुओं की भीड़ हुआ संगठन समाज
क्यों शेरों के वंश पे है सियारों का राज
करुणा न जगा पाई नानक की माटी
रहगई अशक्य क्यों गुरुतेग की परिपाटी
टूटा न तटबंध        क्यों धैर्य धीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का

महामना
जगदीश गुप्त 

No comments:

Post a Comment

LinkWithin

विजेट आपके ब्लॉग पर