Sunday, July 5, 2015

छोटी छोटी खुशियों से ही बड़े बड़े गम गलते हैं

अतीत के झरोखे से

13/10/1996 के राजनांदगांव के सबेरा संकेत में प्रकाशित रचना का आस्वादन कीजिए

छोटी छोटी खुशियों से ही बड़े बड़े गम गलते हैं
एक चिराग महकता है तो बड़े अंधेरे ढलते हैं

पलकों पर बिखरे हैं सपने खो न देना राहों में
कदम दर कदम चलने से मंजिल के दर मिलते हैं

मामूली तकरारों से ही रोज बिखरते हैं रिश्ते
ज़र्रा ज़र्रा कतरों से ही बड़े हिमालय मिलते हैं

उकसावों में उगल न देना अंगारों की ओर हवा
हल्की सी इक चिंगारी से बड़े बड़े घर जलते हैं

रोज रोज की मुस्कानों ने रिश्ते कई सहेजे हैं
बूंद बूंद बारिश से 'ग़रदूं' दरिया कई निकलते हैं

हम सब हैं लाचार सुनो ऐ ज़ुल्म सितम ढाने वालो
मजलूमों के वोट मगर सरकारें कई बदलते हैं

मीठी नज़रों की खुश्बू से खुश होता मन का मधुवन
मीठी प्यारी बोली से ही मौसम कई बदलते हैं
[1:38AM, 04/04/2015] jgdis Gupt:


 लगभग २० साल पहले एक चिंता कविता होकर उतरी थी
आज माननीय मोदी जी के बैंगलोर में भाषण का आरंभ के मनोभाव सुन कर मन किया इसे आप से साझा करने का


नीयत और नियति


नीयत ना बदलेंगे तो फिर
नियति भला कैसे बदले
नियति वही रहना है तो
सरकार बदल कर क्या हासिल ?


कुछ लोग बदल जायेंगे बस
कुछ समीकरण हों परिवर्तित
नहीं बदलना है गर दिल
चेहरों को बदल कर क्या हासिल?


हवन यदि फिर भी पठ्ठों के हाथ रहा
और राज दंड भी उद्दंदों के साथ रहा
गीले कंडों की समिधा धुआं करेगी ही..
पंडे और पंडाल बदल कर क्या हासिल?


वंचित को शक्ति ना मिल पाए
मूक ना अभिव्यक्ति पाए
यदि लूट बरामद हो ना सके
धावों दावों से क्या हासिल?

मन आवर्धन बिना नहीं संभव परिवर्धन
सहकार करो,आराध्य बनाओ गोबर्धन
यदि पीर न जाए पांवों की
 तो पीर पूज कर क्या हासिल

पापी मन ले सुरसरि कैसे होगी साफ
अपनों  में ही अटके हैं ,करिएगा माफ
 यदि मन  की पावनता लक्छय नहीं
निर्मल गंगा से क्या हासिल
[12:37AM, 04/04/2015] jgdis Gupt:



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