Monday, July 6, 2015

  जिन भावों से अनुप्राणित हो छूट गया गृह, छोड़ा निजत्व
अभिव्यक्ति में बहे वही     अमृत सरिता ,     वह राष्ट्र तत्व
जिसके सुख के लिए बिलखता ,छोड़ आए निज माता को
शब्द श्वांस में  कृत्य कृति में गाओ उस भारत माता को




कि मैं जिंदा हूं अभी

आतिशेदिल से जिगर खून खौलता है अभी
आके सीने से लगा लो के मै जिन्दा हूं अभी

इस तरह जीने से तो मौत कहीं बेहतर है
गहरे खंजर को उतारो के मैं जिन्दा हूं अभी

ऐसी तन्हाई से तो रुस़वाई में ही बेहतर थे
मेरे ज़ख्मों को सम्हालो के मैं जिन्दा हूं अभी

आग पानी में लगा  दो ये हुनर है तुम में
आग से आग बुझा दो के मै जिंदा हूं अभी

हिल गई रूहेजमीं तेरे सितम से जालिम
अब तो उल्फत के हवा दो के मैं जिन्दा हूं अभी
[8:37AM, 30/04/2015] jgdis Gupt:
मम
[9:10AM, 30/04/2015] Varaseoni Prnv: जगदीश जी
क्षमा कीजिये
आपकी रचना पढ़ा नहीं था
इस कारण मनोविकार आए ।
पढ़कर लगा कि आप भी
साहित्य के नरेंद्र मोदी जी हैं ।
आपकी सोच ऊँची है ।
आभार ,अभिनंदन ,वन्दन
प्रणय श्रीवास्तव अश्क
[12:01AM, 01/05/2015] jgdis Gupt: आतिशेदिल से जिगर खून खौलता है अभी
आके सीने से लगा लो के मै जिन्दा हूं अभी

इस तरह जीने से तो मौत कहीं बेहतर है
गहरे खंजर को उतारो के मैं जिन्दा हूं अभी

ऐसी तन्हाई से तो रुस़वाई में ही बेहतर थे
मेरे ज़ख्मों को सम्हालो के मैं जिन्दा हूं अभी

आग पानी में लगा  दो ये हुनर है तुम में
आग से आग बुझा दो के मै जिंदा हूं अभी

हिल गई रूहेजमीं तेरे सितम से जालिम
अब तो उल्फत के हवा दो के मैं जिन्दा हूं अभी

मम
[12:20AM, 01/05/2015] jgdis Gupt: पुराना तखल्लुस था ग़र्दूं
अब मानद उपाधि मिली है महामना

आपके स्नेह के लिए ह्रदय के घर के द्वार सदा खुले हैं
[12:24AM, 01/05/2015] jgdis Gupt: आतिशेदिल ने मेरा खून सुखाया है अभी
आके सीने से लगा लो के मैं जिन्दा हूं अभी

इस तरह जीने से तो मौत कहीं बेहतर है
गहरे खंजर को उतारो के मैं जिन्दा हूं अभी

ऐसी तन्हाई से रुस़वाई भली है "ग़र्दूं"
मेरे ज़ख्मों को सम्हालो के मैं जिन्दा हूं अभी

आग पानी में लगा  दो ये हुनर है तुम में
आग से आग बुझा दो के मै जिंदा हूं अभी

हिल गई रूहेजमीं तेरे सितम से जालिम
अब तो उल्फत को हवा दो के मैं जिन्दा हूं अभी



  हम चाकर सरकार के
जय विचार परिवार
जबतक हाकिम आपके
हम आप के मनसबदार

आंखों मे देखकर
पहचान लेते हैं दरकार
कुत्ते के रोटी भेड़िए को बोटी
जान छुड़ाते है सरकार


 उत्तरगामी सूर्य सदैव पश्चिम को ही जाता
घोर निशा के बाद पुनः पूर्व छितिज पर आता
हर बेला यूं तो परिवर्तन की बेला है
कितुं निशा में निशाचरों का त्रासद ही झेला है
आतंकित मन को तब अतीत याद आता है
घोर रात्रि में ब्रह्म बेला का गीत ही मन गाता है
वह अतीत का गीत भविष्य का स्वप्न बना है
वर्तमान का संबल  भविष्य का स्वर्णिम सत्य बना है



कृतसंकल्पित हूं मेरा हर कृत्य बने कविता

कृतसंकल्पित हूं मेरा हर कृत्य बने कविता
गीत रामायण गीता कुरु नृत्य बने कविता

राग विराग समर्पण सब जगती पर अर्पण
शब्द साधना ऐसी चेते हर मन का दर्पण
 पूनम घोर अमावस सुबह दोपहरी संध्या
मंत्र चरैवेति का नित सिद्ध बने कविता

  कृतसंकल्पित हूं मेरा हर कृत्य बने कविता
गीत रामायण गीता कुरु नृत्य बने कविता


लघुकथा वक्तव्य

लघुकथा

वक्तव्य

जगदीश गुप्त

भूख पर सेमिनार चल रहा था | पहले दिन बड़े गंभीर भाषण हुए | एक वक्ता ने सुझाव दिया कि हम किसी भूखे का वक्तव्य भी सुनें | मुझे दायित्व मिला कि मैं किसी भूखे के ढ़ूढ कर लाऊं |
एक  होटल के आगे एक व्यक्ति मिला | जो भूखा लग रहा था लेकिन किसी से कुछ मांग भी नहीं रहा था| मैने स्वयं बढ़ कर उससे पूछा तो उसने बताया कि वह तीन दिन से निराहार है | मैे उसे भोजन कराने का आश्वासन देकर साथ ले आया | अभी भोजन में  समय था | वक्तव्य चल रहे थे | उद्घोषक ने घोषणा की कि अब तीन दिन से भूखा यह व्यक्ति भूख पर अपना वक्तव्य देगा | उसने उस व्यक्ति से कहा आप भूख पर अपने विचार विस्तार से रखें | इसके बाद आपको भोजन कराया जाएगा|
मैं भूखे वक्ता को मंच पर ले गया | वह ,इधर उधर देखने लगा | उसे बोलते न देख सभागार में उपस्थित जनों ने उसे हौसला देने के लिए बोलिए बोलिए मत घबराइए कहना आरंभ किया | मैं उसे हौसला  देने के लिए उसके पास गया उसके कंधे को आत्मीयता से थपकाया | आत्मीयता पा कर उसमें हलचल हुई | उसका हाथ पेट पर गया और वह अचानक हिलक कर रोने लगा |  उसका रुदन वक्तव्य सुन कर हर कोई भूख की वेदना को स्वयं में प्रविष्ट होते अनुभव कर रहा था हर कोई अवाक् था
|[12:34AM, 06/04/2015] jgdis Gupt:



कांच कंचन हुआ

आज नगर के सिद्ध और  समर्थ गीतकारों के बीच यह गीत पढ़ने का संयोग बना | सौभाग्य से सबने सराहा|
एक मांग भी आई कि इसमें वृद्धि की जाए | यह प्रयास किया है |हमारे मंच के विशेषग्यों से मुक्त सुझावों  की अपेक्छा है  |
जो स्वयं को विशेषग्य नहीं मानते वे भावपक्छ पर सुधार और उसके प्रभाव सुझाएं |  स्मरण रहे आज जो प्रशंशा हुई उसका श्रेय वस्तुतः इस मंच के विशेषग्यों को जाता है क्यों कि यहां से पास होने के कारण ही मैने आज रचना
पाठ किया |
सामान्यतः मेरी रुचि सुनने में ही अधिक है|

कांच कंचन हुआ मन वृंदावन हुआ
 पांव पायल हुई बावरी बावरी

गंधरस मेँ पगी रुप की माधुरी
भोर होते हुई पांखुरी पांखुरी

द्रुत विलंबित हुई मध्यमा छुईमुई
तार सप्तक अधर हो गए बांसुरी

सर से सरकी चुनर,धूप निखरी इधर
 सांझ की लालिमा हो गई सांवरी

तूलिका हंस पड़ी रंग नर्तक हुए
 लय हुई देह की  भांवरी भांवरी

कांच कंचन हुआ मन वृंदावन हुआ
 पांव पायल हुई बावरी बावरी
गंधरस मेँ पगी रुप की माधुरी
भोर होते हुई पांखुरी पांखुरी

स्वर सुधा साध कर रागिनी सुरमई
द्रुत विलंबित हुई मध्यमा छुईमुई
दृश्यमय हो गए गीत गोविंद के
तार सप्तक अधर हो गए बांसुरी

सर से सरकी चुनर,धूप निखरी इधर
 भोर का छोर तज मुख हुआ दोपहर
रश्मिरथ पे चढ़ा सूर्य आगे बढ़ा
सांझ की लालिमा हो गई सांवरी

रच गई अल्पना सच हुई कल्पना
व्योम पर छा गया एक बादल घना
तूलिका हंस पड़ी रंग नर्तक हुए
 लय हुई देह की  भांवरी भांवरी

[11:48PM, 05/04/2015] jgdis Gupt

दुष्यंत दीक्षित: भाई साहब गीत का स्तर अत्याधिक उच्च है यदि आप से परिचय हटा दिया जाए और माँ गीत की चर्चा की जाए तो इसका क्या कहने जिस लय रस और बिंब का उपयोग किया है वह अद्भुत है । इसकी समीक्षा wp पर सम्भव ही नही है । तूलिका हस  पड़ी रंग नर्तक हुए लय हुई देह की भावरी ....। कवि की विचार भूमि की उड़ान सराहनीय है 12:45AM, 06/04/2015] Dusynt Dixit :



Sunday, July 5, 2015

हो गया छवि देखकर मैं मुग्ध जिसकी

एक वर्षों पुराने खुदरा कागज से सहेज ली आज एक अनगढ़ रचना


हो गया छवि देखकर मैं मुग्ध जिसकी
आ रहा आभार है उस मूर्तिका पर
मन मालिनी मकरंद रज की भूमिका में
छा गई है मन भुवन की बुर्जिका पर

ग्यात से अग्यात के पथ पांव अनुचर
धूप से सुख छांव तक के नित्य सहचर
अभिमाननी आंख में उतरा प्रणयपल
माधुर्य आया तब भंवरती गीतिका पर


आह्लाद के आभार में श्रृगांर कर आई
मधुरिमा प्रतिदान का संकेत कर आई
प्रतिदृष्टि में कौंधी धजा विद्युल्लता सी
लावण्य भर आया सहमती रीतिका पर

[12:25AM, 05/04/2015] jgdis Gupt:


छोटी छोटी खुशियों से ही बड़े बड़े गम गलते हैं

अतीत के झरोखे से

13/10/1996 के राजनांदगांव के सबेरा संकेत में प्रकाशित रचना का आस्वादन कीजिए

छोटी छोटी खुशियों से ही बड़े बड़े गम गलते हैं
एक चिराग महकता है तो बड़े अंधेरे ढलते हैं

पलकों पर बिखरे हैं सपने खो न देना राहों में
कदम दर कदम चलने से मंजिल के दर मिलते हैं

मामूली तकरारों से ही रोज बिखरते हैं रिश्ते
ज़र्रा ज़र्रा कतरों से ही बड़े हिमालय मिलते हैं

उकसावों में उगल न देना अंगारों की ओर हवा
हल्की सी इक चिंगारी से बड़े बड़े घर जलते हैं

रोज रोज की मुस्कानों ने रिश्ते कई सहेजे हैं
बूंद बूंद बारिश से 'ग़रदूं' दरिया कई निकलते हैं

हम सब हैं लाचार सुनो ऐ ज़ुल्म सितम ढाने वालो
मजलूमों के वोट मगर सरकारें कई बदलते हैं

मीठी नज़रों की खुश्बू से खुश होता मन का मधुवन
मीठी प्यारी बोली से ही मौसम कई बदलते हैं
[1:38AM, 04/04/2015] jgdis Gupt:


 लगभग २० साल पहले एक चिंता कविता होकर उतरी थी
आज माननीय मोदी जी के बैंगलोर में भाषण का आरंभ के मनोभाव सुन कर मन किया इसे आप से साझा करने का


नीयत और नियति


नीयत ना बदलेंगे तो फिर
नियति भला कैसे बदले
नियति वही रहना है तो
सरकार बदल कर क्या हासिल ?


कुछ लोग बदल जायेंगे बस
कुछ समीकरण हों परिवर्तित
नहीं बदलना है गर दिल
चेहरों को बदल कर क्या हासिल?


हवन यदि फिर भी पठ्ठों के हाथ रहा
और राज दंड भी उद्दंदों के साथ रहा
गीले कंडों की समिधा धुआं करेगी ही..
पंडे और पंडाल बदल कर क्या हासिल?


वंचित को शक्ति ना मिल पाए
मूक ना अभिव्यक्ति पाए
यदि लूट बरामद हो ना सके
धावों दावों से क्या हासिल?

मन आवर्धन बिना नहीं संभव परिवर्धन
सहकार करो,आराध्य बनाओ गोबर्धन
यदि पीर न जाए पांवों की
 तो पीर पूज कर क्या हासिल

पापी मन ले सुरसरि कैसे होगी साफ
अपनों  में ही अटके हैं ,करिएगा माफ
 यदि मन  की पावनता लक्छय नहीं
निर्मल गंगा से क्या हासिल
[12:37AM, 04/04/2015] jgdis Gupt:



भंग के उमंग के तरंग के

भंग के उमंग के तरंग के
झांझ के सितार के मृदंग के
आ गए अबीर के गुलाल के
पल ये संगसाथ के धमाल के

अंग अंग फूलती कुंअर कली
मंद मंद मेदनी पवन चली
मन मलय तन प्रलय अनंग के
पल कमल किलोल के कलाल के
आ गए अबीर के गुलाल के
पल ये संगसाथ के धमाल के

देह नेहपान को तृषित द्रवित
लौ जगी धूम्र छंट गए दमित
डाल डाल डोलते विहंग के निहंग के
फुर्र हुए छण सभी कसाल के
आ गए अबीर के गुलाल के
पल ये संगसाथ के धमाल के
[2:17AM, 01/04/2015] jgdis Gupt:


हम निकट नहीं तो क्या

हम निकट नहीं तो क्या
मै साथ नहीं तो क्या
मेरे हिस्से का टीका
माथे पे सजा लेना
गालों को गुलालो स े
रच लेना भिगो लेना

स्नेह वलय सारे
तुमपर ही निछावर है
स्मृतियों की गागर में
छवियों के सागर हैं
मन के दर्पण में
वह समय जगा लेना
मेरे हिस्से का टीका
माथे पे सजा लेना

त्यौहार ये रंगो का
संजीवन का अवसर
द्वार आ खड़ा है
सत शुभ कॉवर लेकर
जीवन के कटु कल्मष
होली में जला देना
मेरे हिस्से का टीका
माथे पे सजा लेना

रंग भरी भंग भरी शुभकामनाएं

जगदीश गुप्त महामना
[9:49AM, 05/03/2015] jgdis Gupt:



 बी बी सी हो गई है
मुम्बइया बीबी सी
रिटायर बेकार बेजार
पूर्व बोल्ड अभिनेत्री सी

लोग इसे अब देखना तो दूर
सुनना भी पसंद नहीं करते
तो बेहया अब ऩंगई पर
दंगई पर उतर आई है
विक्छिप्त और वहशी सी
रिटायर बेकार बेजार
पूर्व बोल्ड अभिनेत्री सी

सरकार ने नहीं लगााई है
कोई  बंदिश कोई प्रतिबंध
संसद ने याद दिलाई है
नैतिकता ,जीवन मूल्य सौगंध
मर्यादा न लांघो न ठगो बीबीसी
रिटायर बेकार बेजार
पूर्व बोल्ड अभिनेत्री सी

[11:45PM, 04/03/2015] jgdis Gupt:



साहित्य हमारा साधन सारस्वतजन संसाधन




साहित्य हमारा साधन सारस्वतजन संसाधन
निश्चित है लक्ष्य हमारा भारत को विश्व सिंहासन

पग पग पर नीर बदलता पग पग बदले भाषाएँ
एक सूत्र हम सब का योगी हों दसों दिशाये
हम प्रज्ञा के अर्चक हैं, हम नीति के निर्माता
हम ऋषि तत्व के साधक हम भारत भाग्य विधाता
संस्कृति उत्थान करेंगे जय मंगल गान करेंगे
गूंजेगा सकल जगत मेँ भारत का विधि अनुशासन

साहित्य हमारा साधन सारस्वतजन संसाधन
निश्चित है लक्ष्य हमारा भारत को विश्व सिंहासन

निज गौरव की विस्मृति से,हा! हतबल राष्ट्र हमारा
निर्बलता का कारण है ,यह जाति पंथ बंटवारा
निर्वीर्य हुए सौ  कोटि ,तज धर्माधारित जीवन
दु:खों से मुक्त न कोई , बालापन वृद्धा यौवन
अंतर की त्याग मलिनता ,बाहर करने अरिमर्दन
संकल्पित तेज जगाने ,करना है धर्म -स्थापन

साहित्य हमारा साधन सारस्वतजन संसाधन
निश्चित है लक्ष्य हमारा भारत को विश्व सिंहासन


3:52PM, 16/02/2015] jgdis Gupt:महामना




चांदनी चांदनी चांदनी हो गई


चांदनी चांदनी चांदनी हो गई
 मुस्कुराए जो तुम चांदनी हो गई

मेरी तनहाइयाँ मुस्कुराने लगीं
मिलने आए जो तुम चांदनी हो गई

मौसमेहिज्ऱ में तब बहार आ गयी
गुनगुनाए जो तुम चांदनी हो गई

टिमटिमाते च़रागों की लौ बढ़ गई
याद आए जो तुम चांदनी हो गई

ज़िन्दगी की तलब जागउठी बाबहर
झिलमिलाए जो तुम चांदनी हो गई

खिलखिलाने लगीं खुश्बुएं हर तरफ
कुनमुनाए जो तुम चांदनी हो गई

घर लबे बाम पर चांद आया उतर
देख आए जो तुम चांदनी हो गई

[11:45AM, 16/02/2015] jgdis Gupt:
महामना गर्दूं


दृष्टि पथ्र मेँ जो भी आएं साथ कर लूँ

मां वीणापाणि के चरणों में एक प्रार्थना

दृष्टि पथ्र मेँ जो भी आएं साथ कर लूँ
नेह बांटूँ प्रीति अपने अंक भर  लूं
मै बुहारूं दुख पीड़ाएं हृदय की
क्रंदनों के करकटों को स्वाह कर लूं
मेरी करुणाएं सदा हों शक्तिशाली
श्रेष्ठता के कार्य करते मै रुकूं ना
मन उमगता ही रहे झंझावतों में
नेह के दीपक जलाते मैं थकूं ना

शब्द की, सामर्थ्य की  ,साहित्य की,
साधना कर बांट दूं , अर्जन सभी
रुक न जाऊं, थक न जाऊं कर्म पथ पर
 शेष हैं सत्कार्य बहुतेरे अभी
हर्ष विकिरण कार्य में जीवन खपे
ध्येय पर श्रद्धा से किंचित मै डिगूं ना
मन उमगता ही रहे झंझावतों में
नेह के दीपक जलाते मैं थकूं ना
12:08PM, 6 Jul - jgdis Gupt:


कांच कंचन हुआ मन वृंदावन हुआ

कांच कंचन हुआ मन वृंदावन हुआ
 पांव पायल हुई बावरी बावरी
गंधरस मेँ पगी रुप की माधुरी
भोर होते हुई पांखुरी पांखुरी

स्वर सुधा साध कर रागिनी सुरमई
द्रुत विलंबित हुई मध्यमा छुईमुई
दृश्यमय हो गए गीत गोविंद के
तार सप्तक अधर हो गए बांसुरी

सर से सरकी चुनर,धूप निखरी इधर
 भोर का छोर तज मुख हुआ दोपहर
रश्मिरथ पे चढ़ा सूर्य आगे बढ़ा
सांझ की लालिमा हो गई सांवरी

रच गई अल्पना सच हुई कल्पना
व्योम पर छा गया एक बादल घना
तूलिका हंस पड़ी रंग नर्तक हुए
 लय हुई देह की  भांवरी भांवरी
11:56AM, 6 Jul - jgdis Gupt:


अनमना है गगन और धरा मौन है

 अनमना है गगन और धरा मौन है
किंचित है विचलित मन समीर का
तमतमा गया मुख सूर्य का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का

ऋषियों सम वृक्ष जो  काट रहे है 
भविष्य अपना शापों से पाट २हे हैं
मूको की आहों से आहत हैं वन
नर्क हो रहा है नागरी जीवन
गूंज रहा निविड़ में दर्द नीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का

कोसती है कोख अपने पाप का प्रसव
संवेदनाएं सोईं क्यों , कलुष गया जग
देखते हैँ  सब अपराध यह जघन्य
शौर्यहीन हतबल हैं  मौन हुए अन्य
विदीर्ण हुआ आज पुनः ह्रदय चीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का

भीरुओं की भीड़ हुआ संगठन समाज
क्यों शेरों के वंश पे है सियारों का राज
करुणा न जगा पाई नानक की माटी
रहगई अशक्य गुरुतेग की परिपाटी
टूटा न धैर्य क्यों अधीर धीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का

शीर्ष को लालायित हैं पतित और अधम 
उज्जवला के मुख पर कालिख का क्रम
रोष भरे मेघों में क्रोधित तड़ित
रुदन कर रही है राष्द्र की नियति
हो गया है कज्जल चरित्र क्षीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का

"©"  M Jgdis
अनमना है गगन और धरा मौन है
किंचित है विचलित मन समीर का
तमतमा गया मुख सूर्य का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का

कोसती है कोख अपने पाप का प्रसव
संवेदनाएं सोईं क्यों , कलुष गया जग
देखते रहे सब    अपराध वह जघन्य
क्यों शौर्यहीन हतबल हो मौन हुए अन्य
विदीर्ण हुआ आज पुनः ह्रदय चीर का
       
खुल गया है कोई स्कंध पीर का

 भीरुओं की भीड़ हुआ संगठन समाज
क्यों शेरों के वंश पे है सियारों का राज
करुणा न जगा पाई नानक की माटी
रहगई अशक्य क्यों गुरुतेग की परिपाटी
टूटा न तटबंध        क्यों धैर्य धीर का

खुल गया है कोई स्कंध पीर का

महामना
जगदीश गुप्त 

 युग चेतना की चितेरी सभासद

 युग चेतना की चितेरी सभासद
अखिल भारतीय साहित्य परिषद्

गति मति यति शब्द की साधिका
राष्ट्र संस्कृति धर्म आराधिका
सौम्य शील करुणा की काम्या
वर्तमान भारत की ऋषि संसद

युग चेतना की चितेरी सभासद
अखिल भारतीय साहित्य परिषद

अखिल विश्व की वसु वाहिनी
वीणापाणि सुतों की प्रिय धारिणी
जगतारिणी , न्याय का करुण पद
साधना ज्ञान वैभव की आभा वृहद

> युग चेतना की चितेरी सभासद
> अखिल भारतीय साहित्य परिषद्

समत्व  रसिकत्व की उद्गाता
क्रांति अवगाहकों की विधाता
शुभ सत कामिनी लेखनी सर्जना
अमृता, अर्पिता , दिव्या-विशद

युग चेतना की चितेरी सभासद
अखिल भारतीय साहित्य परिषद


महामना
जगदीश गुप्त


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