Wednesday, February 25, 2009

क्यूँ आप समझते हैं निज को निर्बल और निसहाय भला

जो आग छुपी है हृदय में उसको थोड़ा सा और जला

निजता को बचाए रखने से मिलता कोई विस्तार नहीं

बीज बिना माटी मिले कभी ब्रक्छ हुआ क्या बताओ भला

अब हल्कापन है लोगों में ,उड़ते हैं हवा के झोंकों में

गुरुता के लिए ,गिरिता के लिए ,अपने अहम को और गला

भारत की संस्कृति का वचन ,परहित सा कोंई धर्म नहीं

शुचिता के सुमन शुभता के कंवल अपने जीवन कुछ और खिला

कल्याण दया ममता की लहर उठती है यदि तेरी छाती में

आनंदित जग जीवन के लिए ,इसमे थोड़ा सा शौर्य मिला

Saturday, February 21, 2009

बिप्लव रख कर मुट्ठी में

बिप्लव रख कर मुट्ठी में

क्रांति लिख देंगे चिट्ठी में

भूखों को सम्मानजनक रोटी अनुबंधित हो

श्रम शक्ति को उचित मूल्य अवसर अ-बाधित हो

दुःख दुविधाओं का बंटवारा नाश अभावों का

भस्म न हो पाए विकास ईर्ष्या की भट्टी में

गांवशहर के मध्य मित्र बंधुत्व प्रबंधन हो

शोषण का निर्ममता से तत्काल निलंबन हो

राजनीती की कु दृष्टी कु चाल करें बाधित

रस्सी कुत्सित व्यालो के कसिये घिट्टी में

Thursday, February 19, 2009

तुम्हारी सौगंध

मधुर प्रीत बेला के अनुपम अनुबंध

मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध

स्मृति झरोखों पर मलयज सुगंध

दृगों में द्रवित प्रिय पीड़ा के बंध

पुनः पुनः दृश्यमान प्रणयित स्कन्ध

हृदय के पटल पर विराजित प्रबंध

मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध

मतिहारी मनुहारी उद्वेगी प्रसंध

वैदेही वरदेही युग्मों के संध

गीतों में उतरे छुअन के निबंध

परिभाषा को तरसे अबूझे सम्बन्ध

मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध

अटकाते भटकाते भावों के फंद

संदर्शित संदल कपाटों के संद

विहगों की पांखों पर उल्लासित छंद

संध्या को नीड़ों में अलसाये वृन्द

मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध

कुंतल कपोलों पर लहराते मंद

कुंडल की किंकणी में बंदी आनंद

प्रतिहारी स्वीकारी आवेशी द्वंद

आशंकित आल्हादित चितवन स्पंद

मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध

Wednesday, February 18, 2009

होली ये बोली

होली ये बोली सुन हमजोली खेल राग की होली

अपने मन का डाल न कीचड़ खेलो रंग-रंगोली

मौज में झूमे मस्ती में नाचे मस्तानो की टोली

आओ खेलें प्रीत के रंग से जला द्वेष की होली

ओट में मेरी घर न जले ना मन सहमे कोई

मै आई हूँ नेह बाँटने भरे रंग की झोली

रुत है फागुनी मन है फागुनी साजन भी फगुनाया

सब मन गायें गीत फागुनी छोड़ बैर की बोली

जिन हाथों में बंदूकें हैं उन में ले लो पिचकारी

मायूसों को मुस्कानें दो कर लो हँसी ठिठोली

गाली का क्या काम गुलालों को मल दो गालों पर

आज न पत्थर भी कोई फेंके बात दूर की गोली

Tuesday, February 17, 2009

बहरों पर शब्द न व्यर्थ करो

गूंगों से मत शास्त्रर्थ करो

बहरों पर शब्द न व्यर्थ करो

ये टूटी हुई शलाकाएँ ,शेष न इनमें आग कोई

लालच के इन पुतलों में,बचा न देशज राग कोई

ये बँटे हुए हैं ख़ुद इतने ,कैसे हो इनका भाग कोई

इनकी है भागम भाग विकट ,इनके न कोई अनुअर्थ करो

सन्नाटे में सुने शब्द ,कहीं कोई हो यदि मनुष

करुण आर्त कृन्दन से पिघले ,हुंकार भरे ले थाम धनुष

मन वाला मत वाला होकर ,हो सके तो होजा आज मनुष

व्योम धरा नि; स्तब्ध हुए ,इनके न कोई स्लेशर्थ करो

संघनित करो तो पीड़ाएं, संधान के स्वर रोओं तो

महामंत्र है राष्ट्र मन्त्र ,बस बीज हृदय में बोओं तो

अवतार बनेगा शब्द स्वयं , तुम साथ शब्द के खोओ तो

हैं शब्द तपस्वी ओजस्वी ,इनके न कोई अन्यर्थ करो

Monday, February 16, 2009

इसी में है समझदारी

न बनिए झुनझुना झांझर , न बनिए राग दरबारी
प्रलोभन हैं बहुत जग में, बड़ी है किंतु खुद्दारी
बचा लो संस्कारों को ,इसी में है समझदारी

अगर तुम तत्व देते हो , जगत को शान्ति होती है
जिसे तुम सत्य देते हो , उसी मे क्रांति होती है
हो तुम वरदान ईश्वर का ,तुम्हें आशीष अक्षर का
खुले मन से लुटा निज को,न बन शब्दों का व्यापारी
बचा लो संस्कारों को ,इसी में है समझदारी

सजग होकर जगत में,तुम जगाओ श्रेष्ठतम चेतन
करो संहार विकृति का , रचो संसार एक नूतन
चलो संस्कृति का रथ लेकर ,पताका भारती की हो
बढ़ा चल मुक्ति के पथ पर ,जिसका है तू अधिकारी
बचा लो संस्कारों को,इसी में है समझदारी

बजो कान्हा की बंसी बन, गगन सुख रश्मियाँ भर दो
उठाओ कुंचियाँ अपनी ,हर इक मन रंगमय कर दो
मृदुल मन ताल दे थिरके ,भुवन हो नाद आनंद का
कला है हाथ जो तेरे , विश्व को बाँट दे सारी
बचा लो संस्कारों को ,इसी में है समझदारी

Sunday, February 15, 2009

नीयत और नियति

नीयत ना बदलेंगे तो फिर
नियति भला कैसे बदले
नियति वही रहना है तो
सरकार बदल कर क्या हासिल ?


कुछ लोग बदल जायेंगे बस
कुछ समीकरण हों परिवर्तित
नहीं बदलना है गर दिल
चेहरों को बदल कर क्या हासिल?


हवन यदि फिर भी पठ्ठों के हाथ रहा
और राज दंड भी उद्दंदों के साथ रहा
गीले कंडों की समिधा धुआं करेगी ही..
पंडे और पंडाल बदल कर क्या हासिल?


वंचित को शक्ति ना मिल पाए
मूक ना अभिव्यक्ति पाए
यदि लूट बरामद हो ना सके
धावों दावों से क्या हासिल?

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